Monday, June 30, 2014

बदलाव या ठहराव?

एक दिन बरसात के बाद,
मैं सड़क पर चल रहा था,
टकरा गया मैं किस से?
अरे, यह तो मेरे  बचपन का दोस्त था!

मुस्कुराते हुए वह बोला,
"मैं  तुम्हे ही ढूँढ रहा था,
छोड़ों अपना यह गाँव,
मैं शहर  तुम्हें  हूँ दिखाता !"

शहर  कभी न  देखा था मैंने,
चाह मुझे न थी,
मेरा ज़िद्दी दोस्त न माना,
मुझे बैठाया  एक डरावनी चीज़ में  , बुलाता उसे गाड़ी !

एक चाबी उसने घुमाई,
उस यंत्र ने जानवर जैसी चीख निकाली,
हाथ से एक  पहिया घुमाया,
और गाड़ी  दायें-बाएँ  मुड़ने लगी!

मेरी तो जान निकल रही थी
मेरा दोस्त था बिलकुल बेफ़िक्र ,
दो घंटे के अनजान सफ़र के बाद,
 हम आ पहुँचे  शहर!

१०० मीटर से भी ऊँची  इमारतें ,
हज़ारों, तरह-तरह के तेज़ रफ़्तार वाले
ये विचित्र वाहन  - गाड़ियाँ ,
और इमारतों में  २० - २५ माले!

मैंने देखा यहाँ  सब कुछ,
था चलता बिजली और मोटर पे,
 इतनी महँगाई थी, हों खाना या कपड़े,
इसके मुकाबले गाँव मे हर चीज़ मिलती सस्ते में ।

"दोस्त," मैंने प्यार से कहा,
"यह शहर नहीं मेरी जगह, अरे ना-ना !
तुमको यहाँ रहना है रहो,
मुझे कृपया मेरे गाँव वापस ले चलो। "

"अरे गाँव मे रखा क्या है?" वह बोला ,
"इस शहर मे सब कुछ मिलता है,
यहाँ करने को इतना कुछ है
उस गाँव मे सिर्फ खेती-बाड़ी है!"

"इस शहर मे अलग-अलग प्रकार का खाना,
गाँव में मिलता वही पुराना!
टेक्नोलॉजी ने सब कुछ आसान बनाया,
गाँव में बिजली के बिना  सब अपने हाथों से पड़ता है करना!"

"मैं जानता हूँ की तुम्हें गाँव की
कम सुविधायें नहीं भाती, "
मैंने उसे समझाया, कि कैसे, बिना बदलाव,
मुझे गाँव की पसंद है सादगी!


"अलविदा मेरे दोस्त, रहो तुम अपने गाँव में  ।"
"अलविदा मेरे दोस्त, रहो तुम अपने शहर में  ।"
मुझे वापस छोड़कर लौट गया वह शहर,
मैं मुस्कुराया, मैं खुश अपने गाँव में ।


*यह कविता मैंने पिछले वर्ष अपनी गर्मी की छुट्टियों में लिखी थी । अपनी टिप्पणियाँ ज़रूर छोड़ें :)

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