यह कविता कॉमन वेल्थ गेम्स के १० दिन पहले लिखी थी
क्या यह ठीक हो रहा है?
७० हज़ार करोड़ रूपया, खर्च हुआ इस पर,
सारा टैक्स इस्तेमाल कर लेंगे, तो क्या आम जनता का चलेगा घर?
खेल शुरू होने में दिन रह गए हैं दस,
पुल गिरने के बाद भी, सरकार नहीं हुई टस से मस,
फ़िर अखबार में घबर आई,
हमारे भारत की हुई बुराई,
गेम्स विलेज के बिस्तरों को, कुत्तों ने किया ख़राब,
अब हमें शर्म आ रही है, उतर गया हमारा नकाब,
तय्यारी में लगा रही है,
दिल्ली अपना सारा दम,
फ़िर भी मैंने सुना है,
खिलाड़ी आ रहे है थोड़े कम,
अब तो मैं बस यही दुआ करती हूँ,
कि भारत को और शर्म न आये,
इस साल के कॉमन वेल्थ गेम्स,
बिना मुश्किल के गुज़र जायें !
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